डॉ. पूर्णिमा भटनागर की कहानियाँ उनके जीवन के अनुभवों से उपजी हैं। इनमें काल्पनिक दुनिया को प्रवेश करने की इजाज़त नहीं है। उन्होंने इस समाज से जो सीखा- समझा-जाना है; और, जो कुछ भी उन्होंने इस जीवन में अनुभव किया है, उसे ही अपनी कहानियों में व्यक्त किया है। - डॉ. राकेश जोशी
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महात्मा विदुर की तपोस्थली विदुरकुटी पौराणिक स्थल के लिए प्रसिद्ध बिजनौर ज़िले में जन्मीं डॉ. पूर्णिमा भटनागर वर्तमान में उत्तराखंड में बतौर प्रोफ़ेसर (अंग्रेज़ी) कार्यरत हैं। बाल्यकाल से ही साहित्यिक माहौल में हुई परवरिश ने उनके भीतर साहित्य-सृजन के संस्कार का बीजारोपण किया। इसके लिए उत्तराखंड की रमणीय वादियों व समाज ने खाद और अनुकूल वातावरण का काम किया जिससे साहित्यिक सृजनात्मकता का यह बीज पुष्पित-पल्लवित हो सका। परिणामस्वरूप कहानी के साथ ही ग़ज़ल में भी उन्होंने लेखन किया है। महर्षि अरविन्द के महाकाव्य ‘सावित्री’ पर शोध कार्य कर चुकीं डॉ. भटनागर अरविन्द घोष के साथ ही विवेकानन्द, जे. कृष्णमूर्ति, ओशो और वर्तमान युग में वेदांत और उपनिषद को सरल भाषा में युवा पीढ़ी को सुलभ कराने हेतु प्रतिबद्ध आचार्य प्रशांत से प्रभावित रही हैं। उनके साहित्य पर इन सभी की आध्यात्मिक चेतना परिलक्षित होती है। डॉ. भटनागर के साहित्य में पाश्चात्य साहित्यकार थॉमस हार्डी, काफ़्का, सॉमरसेट मॉम के साथ ही भारतीय साहित्य के ख्यातिलब्ध नाम रबीन्द्र नाथ टैगोर, मंटो, कमलेश्वर, अज्ञेय समेत कई अन्य साहित्यकारों का प्रभाव है। यह सब मिलकर उनके साहित्यिक जगत को इंद्रधनुषी रंग देते हैं। डॉ. पूर्णिमा भटनागर की कहानियों की एक पुस्तक और ग़ज़लों के संग्रह की एक पुस्तक प्रकाशनाधीन है।
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