मन कई भावनाओं से भरा होता है, जो हमें उस समयावधि में महत्वपूर्ण लगती हैं पर, धीरे- धीरे उसका प्रभाव सीमित होता जाता है। ये कवितायें उन महत्वपूर्ण बिंदुओ का जमा है, जिन्हें मैं सीमित नहीं करना चाहता था। वो विचार, वो आवेग और वो प्रभाव मैं संजोना चाहता था, क्यूँकि शायद उन समयबिंदुओ में मैं थोड़ा सा मरा- थोड़ा जिया और उस मरने- जीने में मैं, मैं बन गया। थोड़ी मोहब्बत की- थोड़ी आशिक़ी की, थोड़ा भाई- थोड़ा बेटा बना, कुछ खोया- कुछ पाया, कभी रोया- कभी मुस्कुराया। ये संग्रह मेरे उमर का वो पायदान है जिसकी सीढ़ियाँ चढ़ते मैं ज़रा सा परिपक्व होने का भ्रम जुटा पाया हूँ और इसी भ्रम में मेरी उम्र का हर इंसान होता है। ज़िंदगी के उतार- चढ़ाव देखते हर इंसान उस भ्रम को अपनाता है और अंततः वो सारे महत्वपूर्ण बिंदु व्यर्थ के लगने लगते हैं जिनका अर्थ नहीं निकल पाता। आप भी अपने उन व्यर्थ के अर्थों को इस किताब के कुछ पन्नों में पढ़े क्यूँकि भावनायें सीमित नहीं वैश्विक होती हैं।
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विराट गुप्ता छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं। चेन्नई में एनीमेशन और वी ऍफ़ एक्स की पढ़ाई के बाद कई सालों तक वहाँ के कॉलेजेस और इन्स्टिट्यूटस में बतौर लेक्चरर काम किया। फ़िल्मों में बढ़े प्रेम की वजह से कर्मों की तलाश में मुंबई चले आये, जहां वो बॉलीवुड में प्रयासरत हैं। कई गाने और शार्ट फिल्म्स लिखे हैं, और उनका निर्देशन किया है, इसके आलवा कई फिल्मों में क्रिएटिव प्रडूसर, क्रिएटिव कन्सल्टन्ट, पोस्ट प्रोडक्शन हेड और सहायक निर्देशक का काम किया है, उनकी कविताएं कई ऑनलाइन पोर्टल्स, न्यूज़ पेपर्स एवं पत्रिकाओं का हिस्सा रह चुकी है।
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