सारूल की कविताओं में दैनिक जीवन की बुदबुदाहटें हैं, जिसे कोई सुन ले तो अच्छा और न सुने तो और अच्छा। इन नज़्मों में उर्दू कविता की वह ताक़त तवाफ़ करती है जो मनुष्य की भीतरी दुनिया का रेशा-रेशा उधेड़कर रख देती है। भीतरी दुनिया को इस तरह उधेड़ना दरअसल दुनिया को नये सिरे से बुनने की बेचैनी से संभव होता है। इन नज़्मों के दुःख, संत्रास, बेचैनी और पीड़ाएँ इतनी विनम्र हैं कि वे अपने होने से नापता रहने में कोई नुक़सान नहीं समझती हैं। सारूल की कविताओं में उतरने के लिए कोई बहुत कौशल की आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन पाठक अपने आत्म को दैनिक चर्चा की सामूहिक गतियों का हिस्सा नहीं समझता तो इन कविताओं में उतरना संभव नहीं है। इन नज़्मों की आसनियाँ बहुत दुरूह हैं। - विहाग वैभव, हिन्दी कवि
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सारुल बागला -
08 जुलाई 1995, महोली, सीतापुर, उत्तर प्रदेश में जन्म हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय(BHU) से भौतिकी में स्नातक, आईआईटी(आईएसएम) IIT (ISM) धनबाद से भू-भौतिकी में परास्नातक, वर्तमान में ओ.एन.जी.सी., (ONGC) अंकलेश्वर में कार्यरत। हिन्दी और उर्दू साहित्य में विशेष रुचि। सदानीरा, वागर्थ, कथाक्रम, अनहद और हिन्दी की अन्य प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। विश्व कविता के कुछ अनुवाद प्रकाशित।
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