कभी लफ्ज़ बोएं हैं? आंसुओं से रुंधे, जिंदगी से भरे, खिलखिलाते, चहचहाते, खामोश या फिर अनकहे ये लफ्ज़ जब बोए जाते हैं, तो कविताओं की कोंपलें फूटती हैं । पर हर कोंपल नरमाई ही लिए हो यह जरूरी नहीं । कुछ तो इतनी तीखी होती हैं, कैक्टस की तरह, कि अंदर तक छलनी कर देती हैं। और कुछ मखमली एहसासों वाली कविताएं, इतनी अपनी सी लगती है कि पढ़ते-पढ़ते एक मुस्कान चेहरे पर आ ही जाती है। बस यही एहसास है मुरकियाँ -- आपके, मेरे और इस समाज के। एक और बात... मुरकियाँ यूं तो संगीत से जुड़ा शब्द है; स्वरों का उतार-चढ़ाव, कहीं छोड़ने, कहीं थमने, कहीं रुकने की प्रक्रिया है मुरकियाँ। उपमा डागा पार्थ की यह कविता संग्रह भी जीवन के इसी उतार-चढ़ाव से रूबरू करवाता है, जहां ख्वाहिशें, ख्वाब और हकीकत सब अलग-अलग होते हुए भी साथ-साथ चलते हैं।
कवि परिचय
उपमा डागा पार्थ मूल रूप से अमृतसर, पंजाब से ताल्लुक रखती हैं। गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी से वाणिज्य में स्नातक और प्रशिक्षित कॉस्ट अकॉउंटेंट होते हुए भी उन्होंने अपने लिखने के जनून को प्राथमिकता देते हुए पत्रकारिता को ही पेशे के तौर पर अपनाया । उपमा, वर्तमान में, पंजाब के प्रमुख समाचार पत्र अजीत के दिल्ली ब्यूरो में कार्यरत हैं और राष्ट्रीय राजनैतिक परिवेश, पंजाब से जुड़े मुद्दों और सामाजिक मामलों पे पैनी नज़र रखती हैं। मुरकियाँ उनका पहला काव्य संग्रह है जिससे उन्होंने समाज में व्याप्त कई कुरीतियों की तरफ तो ध्यान आकृष्ट किया ही है, साथ ही साथ मानव हृदय के कई सूक्ष्म भावों को भी छुआ है।
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