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ये ज़िन्दगी की कुछ यादें हैं जिन्हें मैं पन्नों में पिरो रही हूँ। मैं यह तो नहीं जानती कि आपने इनमें से कितनी यादें जी होंगी! हाँ ये ज़रूर जानती हूँ कि आप मेरी यादों से इत्तेफ़ाक़ रखेंगे।

ज़िन्दगी हर मोड़ पर बहुत सारे एहसास देकर गई और मेरी इस ज़रा सी ज़िन्दगी में मोड़ बहुत थे, जिन पर मैंने ठोकरें भी बहुत खाईं और उन ठोकरों से मैंने बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ गवां दिया।

जो सीखा और जो गवां दिया वह सब मैं पन्नों पर उतार रही हूँ, हल्के हल्के मैं आपको अपनी ज़िन्दगी का आइना दिखा रही हूँ। उम्मीद करती हूँ कि इस आईने में आपको भी अपना अक्स नज़र आएगा।

 

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युवा लेखिका पूर्णा को घर में सभी प्यार से अंशु कह कर बुलाते हैं। इनका जन्म 8 दिसंबर 1994 को  एक छोटे से शहर हसनपुर में हुआ और दसवीं तक पढ़ाई भी वहीं की। इसके बाद अलीगढ़ से बारहवीं करके इंजीनियर बनने का सपना लिए पूर्णा घर से निकल कर ग़ाज़ियाबाद आ गईं। लिखने का शौक ग्यारहवीं तक आते-आते बहुत बढ़ गया लेकिन कभी ये अहसास नहीं हुआ कि ये सिर्फ शौक नहीं है। इंजीनियरिंग के दौरान डायरी कविताओं से भर गईं तब मालूम हुआ कि ये बस शौक नहीं है। फ़िर शुरू हुआ कविताओं का सफ़र। जितना दूसरे लेखकों को पढ़ने का शौक था उससे ज़्यादा लिखने का। लेकिन ज़िन्दगी को किसी और दिशा में ले जाना था। इन्होंने चुना सिविल सर्विसेज़ और दिल्ली की ओर कदम बढ़ चले। लेकिन क़िस्मत कब और कैसे पलट जाए इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। आज पूर्णा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम.टेक कर रही हैं। कविताएँ लिखने के साथ-साथ इन्हें कविताएँ एवं कहानियाँ सुनाना भी पसन्द है। इसलिए रेडियो करंट एफ.एम पर कई बार लाइव सुनाया भी है।

 

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