प्रतिशोध की अग्नि में जन्मा यह काव्य, शक्ति नहीं—स्मृति की राजनीति रचता है। यह कथा है उस पराजित पुरुष की, जिसने युद्ध तलवार से नहीं, इतिहास की दिशा मोड़कर लड़ा। महाकाव्य पूछता है—यदि विजेता बदल जाए, तो धर्म का चेहरा कौन तय करेगा?
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राजेश कुट्टन एक बहुआयामी सृजनकर्ता हैं—कवि, विचारक, तकनीक-विशेषज्ञ और भारतीय दार्शनिक परंपराओं के गहन अध्येता। आधुनिक डिजिटल युग में रहते हुए भी उनकी दृष्टि भारतीय इतिहास, महाकाव्यों और मिथकीय स्मृतियों की धूल से जन्म लेने वाले उन अनसुने स्वरों पर जाती है, जिन्हें पराजय ने मौन कर दिया था। पेशे से एक सफल टेक्नोलॉजी लीडर होने के बावजूद, राजेश की रचनात्मक आत्मा हमेशा शब्दों के गूढ़ संसार की ओर लौटती रही है—जहाँ वे राजनीतिक मस्तिष्क, मानवीय पीड़ा, और इतिहास की छाया में छिपे चरित्रों को एक नए, साहसिक, और असुविधाजनक प्रकाश में सामने लाते हैं। “गान्धार का भस्म–राज” उनकी इसी दृष्टि का विस्तार है—एक गहरा, डार्क-एपिक काव्य जो महाभारत के शाकुनी को केवल एक खलनायक नहीं, बल्कि पराजित सभ्यताओं के जीवित प्रतीक के रूप में पुनर्स्थापित करता है। राजेश की लेखन शैली भावनाओं और दर्शन का सम्मिश्रण है—सघन, तप्त, और असुविधाजनक रूप से सत्य के करीब। उनका मानना है कि इतिहास केवल विजेताओं द्वारा लिखा गया दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि पराजितों की राख में दबी हुई एक दूसरी पुस्तक भी होती है—जिसे पढ़ने के लिए धैर्य, संवेदना और साहस चाहिए। तकनीकी नवोन्मेष और साहित्यिक गहराई—इन दो विलग प्रतीत होने वाली दिशाओं को समेटकर राजेश एक ऐसे सृजनकर्ता के रूप में सामने आते हैं, जो अतीत की मौन गलियों और भविष्य की चमकदार संभावनाओं के बीच एक पुल रचते हैं।
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