ये हैं अर्चना दानिश -उर्दू व हिंदी कविता की ऐसी गहराई कि जिसको समझने की हर साहित्त्य-प्रेमी की इच्छा हो। बेतकल्लुफ़ी से ग़ज़ल लिखना हो या कि किसी नज़्म की रचना करनी हो- अर्चना दानिश जैसे हर वक़्त भरी पड़ी हों भावों से। बचपन जहाँ कई बेढब व पुरुषवादी कष्टों में बीत गया, तो वहीं जवानी के शुरुआती दिनों से ही अपने-आप को इस संसार में एक अस्तित्व देने की कोशिश में लगी रहीं। यौन शोषण का
व्यक्तिगत व जातिगत सामना, कम उम्र में माँ की आकस्मिक मृत्यु व उसके पश्चात अपने घर से विरह, और ऐसे सैकड़ों पुरुषवादी ख़याल जो इस समाज को सभ्यता से कब्र की ओर लिए जा रहे हैं, उन्हें बेहद ही बेलाग ढंग से अर्चना दानिश ने जो ज़बान दी है, वो काबिले-तारीफ़ है! अब इसे ख़ुदा की नेमत समझिए या की इनके दादा ‘दानिश लखनवी’ की विरासत, जो ये महज़ सात साल की उम्र से ही अपने भावों की हर बारीकी को एक सुंदर कविता में पिरोने लगीं। साहित्य से इनका सरोकार मुख्य रूप से ग़ज़लों व गीतों के माध्यम से हुआ। ग़ज़लों व गीतों के माध्यम से उर्दू सीखना व उसे साहित्यिक रूप देना बेहद ही सराहनीय है। प्रिय कवियों की बात की जाए तो गुलज़ार इनके महबूब कवि हैं। गुलज़ार को पढ़ना व सुनना इनके ‘ख़ास वक़्त’ गुज़ारने के तरीकों में से हैं। गुलज़ार के अलावा, साहिर लुधियानवी, निदा फ़ाज़ली व ग़ालिब को भी इन्होंने पढ़ा है। अर्चना दानिश एक बेहद ही सशक्त महिला हैं और ये आप उनकी लेखनी में भी पाएंगे। सुकून व बेचैनी का ऐसा मिश्रण कि आप उन्हें पढ़ते-पढ़ते अंदर से भर उठेंगे और उस आह की आँच आपको हर दूसरी कविता पढ़ने पर मजबूर कर देगी। इनके लिए कविता सिर्फ लेखन का एक ज़रिया नहीं है, बल्कि मानसिक अवसादों से मुक्ति का एक उत्तम तरीका है।
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